(एक पुरानी कृति)
संध्या की धूमिल सी बेला में
संध्या की धूमिल सी बेला में
एकाकी सा मैं
रात्रि अभी कुछ दूर है
जलता बुझता सा मैं
चिंतित हूँ, कुछ मन ही मन में
और थोड़ा आहत हूँ मैं
समय कम रह गया है
कुछ पछताता हूँ मैं
स्वप्न कई हैं सोए चुपचाप सीने में
कुछ को जगाता हूँ मैं
मंद होती धीमी नसों को
पुनः उकसाता हूँ मैं
हार कैसे स्वीकार कर लूँ
अंतिम गति तक योद्धा हूँ मैं
स्वप्न पूरे जो हो ना पाएँ
अंत तक प्रयासरत रहूँगा मैं
जयंत चौधरी
०९/२२/१८