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Monday, February 18, 2019

जलता बुझता सा मैं.... (एक पुरानी कृति)

(एक पुरानी कृति)

संध्या की धूमिल सी बेला में
एकाकी सा मैं 
रात्रि अभी कुछ दूर है 
जलता बुझता सा मैं 

चिंतित हूँ, कुछ मन ही मन में
और थोड़ा आहत हूँ मैं 
समय कम रह गया है 
कुछ पछताता हूँ मैं 

स्वप्न कई हैं सोए चुपचाप सीने में
कुछ को जगाता हूँ मैं 
मंद होती धीमी नसों को
पुनः उकसाता हूँ मैं

हार कैसे स्वीकार कर लूँ
अंतिम गति तक योद्धा हूँ मैं
स्वप्न पूरे जो हो ना पाएँ 
अंत तक प्रयासरत रहूँगा मैं  

जयंत चौधरी
०९/२२/१८




Monday, February 4, 2019

न विजय की चाह, न पराजय का डाह...

न कोई आस,
न कोई प्यास,
मात्र, जीवन जीने की अमिट अभिलास। 

न रातों के अँधेरे,
न सुबह के उजाले,
मात्र, अस्तित्व के होने का अहसास।

न रंगों की बरसात,
न मरू का पाश,
मात्र, अपने कर्तव्यों का भास। 

न विजय की चाह,
न पराजय का डाह,
मात्र, मन में कर्म प्रण का वास। 

न पाप की राह,
न पुण्य की चाह,
मात्र, सद्कर्म करने का प्रयास.... 

~ समर शेष 
०४-०२-२०१९

Saturday, February 2, 2019

एक, उद्यान मधुर...

ये है एक, उद्यान मधुर,
जो कहलाता अंतर मन...

मुखड़े पर फैली ये मुस्कान,
इसकी है मद मस्त सुगंध...

और हँसी की हर एक गूँज,
इस उपवन की है जल तरंग...

इसकी बेलाओं सा इठलाए,
इतराए लहराए झूमे मेरा तन...

गुनगुनाहट मेरे अधरों की,
इसके मधुकर का गुन गुंजन...

बन प्रभा ढली मेरे नयनों में,
इसकी मधुर चंद्र किरन...

यह सुंदर सुरभित शोभित उपवन,
यह उपवन है, मेरा जीवन...

- जयंत चौधरी 
०२-०२-२०१९
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