धुँए से उलझी साँसे, लपटों से हाथ जलते जाते थे,
फिर भी तुझे खाते देख उसके नैन आनंद से भर जाते थे
तू स्वयं उदर भर भोजन कर, पड़ा अलसाया,
कभी विचारा? माँ ने क्या, कब खाया?
पीसते चटनी, रखते अचार, हाथ उसके थक जाते थे,
माँ के अधर, मगर, सदैव मुस्कराते जाते थे,
उनका भरपूर आनंद उठा, तू बहुत भरमाया,
कभी लजाया? माँ का दुखता हाथ दबाया?
माँ के सवरनें और पहनने के शौक छूटते जाते थे,
उसके अरमान, घर की तंगी देख बदलते जाते थे,
अपने वस्त्रों पर पैबंद लगा, उसने तुझे सजाया,
कुछ सोचा? कभी आदर से उसे कुछ पहनाया?
घुटने, कमर, धीरे धीरे, सपनों के संग टूटते जाते थे,
माँ के दुखते हाथ मगर, तेरे भविष्य को बुनते जाते थे,
उसके बलिदानों पर खडा, अपने आप पर गर्वाया,
कभी सोचा? उस माँ को तुने क्या लौटाया?
तेरे लिए, हँसकर उसने अपना, सबकुछ दाव लगाया,
कभी सोचा? उस माँ को तुने क्या लौटाया?
कभी सोचा? उस माँ को तुने क्या लौटाया?
~जयंत चौधरी
(जुलाई २००८, माँ के जन्मदिन पर)
(Art: by Joe Szimhart)
फिर भी तुझे खाते देख उसके नैन आनंद से भर जाते थे
तू स्वयं उदर भर भोजन कर, पड़ा अलसाया,
कभी विचारा? माँ ने क्या, कब खाया?
पीसते चटनी, रखते अचार, हाथ उसके थक जाते थे,
माँ के अधर, मगर, सदैव मुस्कराते जाते थे,
उनका भरपूर आनंद उठा, तू बहुत भरमाया,
कभी लजाया? माँ का दुखता हाथ दबाया?
माँ के सवरनें और पहनने के शौक छूटते जाते थे,
उसके अरमान, घर की तंगी देख बदलते जाते थे,
अपने वस्त्रों पर पैबंद लगा, उसने तुझे सजाया,
कुछ सोचा? कभी आदर से उसे कुछ पहनाया?
घुटने, कमर, धीरे धीरे, सपनों के संग टूटते जाते थे,
माँ के दुखते हाथ मगर, तेरे भविष्य को बुनते जाते थे,
उसके बलिदानों पर खडा, अपने आप पर गर्वाया,
कभी सोचा? उस माँ को तुने क्या लौटाया?
तेरे लिए, हँसकर उसने अपना, सबकुछ दाव लगाया,
कभी सोचा? उस माँ को तुने क्या लौटाया?
कभी सोचा? उस माँ को तुने क्या लौटाया?
~जयंत चौधरी
(जुलाई २००८, माँ के जन्मदिन पर)
(Art: by Joe Szimhart)