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Thursday, March 26, 2009

~ कभी सोचा? उस माँ को तुने क्या लौटाया? ~



धुँए से उलझी साँसे, लपटों से हाथ जलते जाते थे,
फिर भी तुझे खाते देख उसके नैन आनंद से भर जाते थे
तू स्वयं उदर भर भोजन कर, पड़ा अलसाया,
कभी विचारा? माँ ने क्या, कब खाया?

पीसते चटनी, रखते अचार, हाथ उसके थक जाते थे,
माँ के अधर, मगर, सदैव मुस्कराते जाते थे,
उनका भरपूर आनंद उठा, तू बहुत भरमाया,
कभी लजाया? माँ का दुखता हाथ दबाया?

माँ के सवरनें और पहनने के शौक छूटते जाते थे,
उसके अरमान, घर की तंगी देख बदलते जाते थे,
अपने वस्त्रों पर पैबंद लगा, उसने तुझे सजाया,
कुछ सोचा? कभी आदर से उसे कुछ पहनाया?

घुटने, कमर, धीरे धीरे, सपनों के संग टूटते जाते थे,
माँ के दुखते हाथ मगर, तेरे भविष्य को बुनते जाते थे,
उसके बलिदानों पर खडा, अपने आप पर गर्वाया,
कभी सोचा? उस माँ को तुने क्या लौटाया?

तेरे लिए, हँसकर उसने अपना, सबकुछ दाव लगाया,
कभी सोचा? उस माँ को तुने क्या लौटाया?
कभी सोचा? उस माँ को तुने क्या लौटाया?

~
जयंत चौधरी
(
जुलाई २००८, माँ के जन्मदिन पर)

(Art: by Joe Szimhart)

Wednesday, March 11, 2009

*** माँ - एक कविता ***


बच्चों को, छप्पन भोग खिला कर,
रुखा-सूखा, बासा भोजन करती माँ..

अपने सपनों को, स्वयम जला कर,
बच्चों का जीवन, रोशन करती माँ..

बच्चों को सजा-संवार, बनाकर सुन्दर,

खुद श्रींगार-हीन, रह जाती माँ..

मात्र्व्य पाते ही, एक ही क्षण में,

वो स्वयम, बच्ची से बन जाती माँ..

कठिनाई की धूप में, ख़ुद जल वृक्षों सी,

बच्चों को हर क्षण, छाया देती माँ..

प्रथम और सर्वोपरी शिक्षिका, बन बच्चों की,

'नव'जात को मा'नव', बनाती माँ..

हँसकर बच्चों पर, सर्वस्व समर्पित कर,

'मा'नवता का 'मा', बन जाती माँ ..

~जयंत चौधरी
जुलाई ३०, २००८
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