(एक पुरानी कृति)
संध्या की धूमिल बेला में
संध्या की धूमिल बेला में
बैठा एकाकी सा मैं
रात्रि अभी बहुत दूर है
तब तक जलता बुझता सा मैं
चिंतित हूँ, कुछ मन ही मन में
और थोड़ा आहत हूँ मैं
समय थोड़ा ही रह गया है
और कुछ पछताता हूँ मैं
स्वप्न कई हैं सोए सीने में
उनको पुनः जगाता हूँ मैं
मंद होती हुई नसों को
आज पुनः उकसाता हूँ मैं
हार कैसे स्वीकार कर लूँ
वीर गति तक योद्धा हूँ मैं
स्वप्न पूरे जो हो ना पाएँ
अंत तक प्रयासरत रहूँगा मैं
~ जयंत चौधरी
०९/२२/१४