* जयंत - मृत्युंजय विचार *
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Writer : Jayant Chaudhary (All work is Original)
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- तेरी माँ -
जो कांधा बन, तुझे सहारा देती है,
कभी वो भी, अन्दर से चुपचाप टूटी होगी...
जो तुझे भरपेट खिलाती है,
कभी वो भी, केवल पानी पीकर सोयी होगी...
जो तुझे पंख देकर उड़ाती है,
कभी वो भी, आसमान छूना चाहती होगी...
जो तेरे लिए दिए जलाती है,
कभी वो, अपने सपने भी उसमें जलाती होगी...
जो तेरा भय मिटाती है,
कभी वो, ख़ुद मन-ही-मन भयभीत रही होगी..
जो तुझे सर-आखों बैठाती है,
कभी वो, ख़ुद उपेक्षित सी पड़ी रही होगी...
जो तुझे जीवन अमृत पिलाती है,
कभी वो, ख़ुद घुट घुट कर विष पीती होगी....
तुझ जैसे दुनिया में लाखों हैं,
तेरी माँ, पर लाखों-करोड़ों में एक ही होगी...
जो तू ढूढ़ने निकलेगा,
कोई आत्मा, तेरी माँ जैसी कभी नहीं होगी...
युग-युग और चिर-अन्तर तक
तेरी माँ, अद्वितीय ही होगी, अद्वितीय ही होगी॥
~जयंत चौधरी
(स्व-रचित, २६ मार्च २००८)
Monday, February 18, 2019
जलता बुझता सा मैं.... (एक पुरानी कृति)
(एक पुरानी कृति)
संध्या की धूमिल सी बेला में
संध्या की धूमिल सी बेला में
एकाकी सा मैं
रात्रि अभी कुछ दूर है
जलता बुझता सा मैं
चिंतित हूँ, कुछ मन ही मन में
और थोड़ा आहत हूँ मैं
समय कम रह गया है
कुछ पछताता हूँ मैं
स्वप्न कई हैं सोए चुपचाप सीने में
कुछ को जगाता हूँ मैं
मंद होती धीमी नसों को
पुनः उकसाता हूँ मैं
हार कैसे स्वीकार कर लूँ
अंतिम गति तक योद्धा हूँ मैं
स्वप्न पूरे जो हो ना पाएँ
अंत तक प्रयासरत रहूँगा मैं
जयंत चौधरी
०९/२२/१८
Monday, February 4, 2019
न विजय की चाह, न पराजय का डाह...
न कोई आस,
न कोई प्यास,
मात्र, जीवन जीने की अमिट अभिलास।
न रातों के अँधेरे,
न सुबह के उजाले,
मात्र, अस्तित्व के होने का अहसास।
न रंगों की बरसात,
न मरू का पाश,
मात्र, अपने कर्तव्यों का भास।
न विजय की चाह,
न पराजय का डाह,
मात्र, मन में कर्म प्रण का वास।
न पाप की राह,
न पुण्य की चाह,
मात्र, सद्कर्म करने का प्रयास....
~ समर शेष
०४-०२-२०१९
न कोई प्यास,
मात्र, जीवन जीने की अमिट अभिलास।
न रातों के अँधेरे,
न सुबह के उजाले,
मात्र, अस्तित्व के होने का अहसास।
न रंगों की बरसात,
न मरू का पाश,
मात्र, अपने कर्तव्यों का भास।
न विजय की चाह,
न पराजय का डाह,
मात्र, मन में कर्म प्रण का वास।
न पाप की राह,
न पुण्य की चाह,
मात्र, सद्कर्म करने का प्रयास....
~ समर शेष
०४-०२-२०१९
Saturday, February 2, 2019
एक, उद्यान मधुर...
ये है एक, उद्यान मधुर,
जो कहलाता अंतर मन...
मुखड़े पर फैली ये मुस्कान,
इसकी है मद मस्त सुगंध...
और हँसी की हर एक गूँज,
इस उपवन की है जल तरंग...
इसकी बेलाओं सा इठलाए,
इतराए लहराए झूमे मेरा तन...
गुनगुनाहट मेरे अधरों की,
इसके मधुकर का गुन गुंजन...
बन प्रभा ढली मेरे नयनों में,
इसकी मधुर चंद्र किरन...
यह सुंदर सुरभित शोभित उपवन,
यह उपवन है, मेरा जीवन...
- जयंत चौधरी
०२-०२-२०१९
Wednesday, January 30, 2019
संघर्ष अमर हो जाता है...
परिणामों की चिंता किसे?
संघर्ष अमर हो जाता है...
कभी विजयी होने वाला,
कभी बलिदानी भी हो जाता है....
अंत अगर मनोवांछित ना हो,
वो तब भी अनंत हो जाता है....
जो तन, मन, प्राण, और हर कण,
हर क्षण, साहस से रण कर जाता है...
~ जयंत चौधरी
(माँ दुर्गा को समर्पित)
३१-०१-२०१९
संघर्ष अमर हो जाता है...
कभी विजयी होने वाला,
कभी बलिदानी भी हो जाता है....
अंत अगर मनोवांछित ना हो,
वो तब भी अनंत हो जाता है....
जो तन, मन, प्राण, और हर कण,
हर क्षण, साहस से रण कर जाता है...
~ जयंत चौधरी
(माँ दुर्गा को समर्पित)
३१-०१-२०१९
Monday, April 20, 2009
~ तृप्ति... ~
मेरे जीवन के सुनहरे सफर में,
आए थे तुम इन्द्रधनुष बनकर,
मन मयूर नाच उठा था मेरा,
तुमको अपने संग संग पाकर,
छलका था प्रेम प्यार तुम्हारा,
अमृत बन सपनों के उपवन पर,
प्रारम्भ हुई सृजन की नव पीढी,
पनपा प्रेम नव विरवा बन कर,
तुमसे ही तो मिला था प्रियतम,
एक नन्हा सुन्दर अनुपम उपहार
हर्ष-आनंद से भर उठता है मन,
चाहे कितना भी लूँ उसे निहार,
हर्ष-उल्लास से जीवन झूम उठा,
मन में समाया, प्रेम का सागर,
मधु-मद-मय आत्मा नाच उठी,
छलक उठी सुख-सपनों की गागर,झुलसा नही कभी घर आँगन मेरा,
तुम रहे सदैव शीतल छाया बनकर,
पीड़ा का सूखा ना कभी पड़ा,
श्रम बहा तुम्हारा, जल बनकर,....
पर सम्भव कहाँ, कभी भी रहना,
काल-चक्र की गति से बच कर,
आगम हुआ, एक क्षण में प्रलय का,
और टूटा दुःख, विशाल पर्वत बन कर,
अरमानों की गगरी टूट गयी,
सुख-स्वप्न बिखरे चूर चूर होकर,
पर जीवन को व्यर्थ बहाती नहीं,
मैं कभी, एक पल भी आंखों से रोकर,
क्योंकि दुःख से, गर्व बहुत है ज्यादा,
मुझे तुम्हारी, अद्वितीय वीर-गति पर,
तुम संग जीकर, तुमसे ही सीखा था,
जीवन को सचमुच जीना प्रियवर,
....
मुश्किल कितना भी हो चाहे,
जीना है, अपना सर ऊँचा रखकर,
सीख लिया है मैंने भी अब तो,
जीवन विष को पीना हँस कर,आंधियां भी ना हिला सकेंगी,
उससे, चलती हूँ मैं जिस पथ पर,
साँसों का स्पंदन कहता मुझसे,
चलते जा, तू अथक संघर्ष कर,
भान मुझे है, यह आज भी,
देखते हो तुम हमें छुपकर,
और दे जाते हो साहस व् शक्ति,
अपने होने का आभास दिला कर,
उलझा जब भी मेरा मन चिंतन,
सुलझाया तुमने चुपके से हर बार,
मंजिल को मैं हासिल कर ही लुंगी,
मुझे राह दिखाता तुम्हारा प्यार,
तुमको अपने संग लेकर चलूंगी,
है जब तक मेरी साँसों का विस्तार,
प्रेरक शक्ति तुम्ही हो प्रियवर,
झुककर कभी ना मानूंगी मैं हार,.....
प्रेम तुम्हारा गया नहीं हैं,
रहता है, वो मुझमे बस कर,
छोटा सा था, भले साथ हमारा,
लगता सौ जन्मों से भी बढ़कर,
आज भी तुम, संग बने हो,
चाहे चले गए हो उस पार,
प्रेम हमारा अमर है प्रीतम,
पलेगा ये, जब तक है संसार...
....
प्रिय, साधना मेरी सफल ही होगी,
तप कर लूँगी, माँ और पितृ बनकर,
'तृप्ति' मुझे मिल जायगी जब अपना,
प्रेमांकुर निखरेगा सुन्दर वृक्ष बनकर....
.....
कुछ खट्टी मीठी यादों की माला,
धीरे धीरे गूंथते चलता है मेरा सफर...
फिर एक दिन हम साथ में होंगे,
हम करें प्रतीक्षा, तब तक, प्रियवर...
~जयंत चौधरी२-१८ अप्रैल २००९(Originally published 20-April-2009 12:04 PM CST)
(एक अति साहसी मित्र को समर्पित.. अत्यधिक सम्मान के साथ)
Thursday, March 26, 2009
~ कभी सोचा? उस माँ को तुने क्या लौटाया? ~
धुँए से उलझी साँसे, लपटों से हाथ जलते जाते थे,
फिर भी तुझे खाते देख उसके नैन आनंद से भर जाते थे
तू स्वयं उदर भर भोजन कर, पड़ा अलसाया,
कभी विचारा? माँ ने क्या, कब खाया?
पीसते चटनी, रखते अचार, हाथ उसके थक जाते थे,
माँ के अधर, मगर, सदैव मुस्कराते जाते थे,
उनका भरपूर आनंद उठा, तू बहुत भरमाया,
कभी लजाया? माँ का दुखता हाथ दबाया?
माँ के सवरनें और पहनने के शौक छूटते जाते थे,
उसके अरमान, घर की तंगी देख बदलते जाते थे,
अपने वस्त्रों पर पैबंद लगा, उसने तुझे सजाया,
कुछ सोचा? कभी आदर से उसे कुछ पहनाया?
घुटने, कमर, धीरे धीरे, सपनों के संग टूटते जाते थे,
माँ के दुखते हाथ मगर, तेरे भविष्य को बुनते जाते थे,
उसके बलिदानों पर खडा, अपने आप पर गर्वाया,
कभी सोचा? उस माँ को तुने क्या लौटाया?
तेरे लिए, हँसकर उसने अपना, सबकुछ दाव लगाया,
कभी सोचा? उस माँ को तुने क्या लौटाया?
कभी सोचा? उस माँ को तुने क्या लौटाया?
~जयंत चौधरी
(जुलाई २००८, माँ के जन्मदिन पर)
(Art: by Joe Szimhart)
फिर भी तुझे खाते देख उसके नैन आनंद से भर जाते थे
तू स्वयं उदर भर भोजन कर, पड़ा अलसाया,
कभी विचारा? माँ ने क्या, कब खाया?
पीसते चटनी, रखते अचार, हाथ उसके थक जाते थे,
माँ के अधर, मगर, सदैव मुस्कराते जाते थे,
उनका भरपूर आनंद उठा, तू बहुत भरमाया,
कभी लजाया? माँ का दुखता हाथ दबाया?
माँ के सवरनें और पहनने के शौक छूटते जाते थे,
उसके अरमान, घर की तंगी देख बदलते जाते थे,
अपने वस्त्रों पर पैबंद लगा, उसने तुझे सजाया,
कुछ सोचा? कभी आदर से उसे कुछ पहनाया?
घुटने, कमर, धीरे धीरे, सपनों के संग टूटते जाते थे,
माँ के दुखते हाथ मगर, तेरे भविष्य को बुनते जाते थे,
उसके बलिदानों पर खडा, अपने आप पर गर्वाया,
कभी सोचा? उस माँ को तुने क्या लौटाया?
तेरे लिए, हँसकर उसने अपना, सबकुछ दाव लगाया,
कभी सोचा? उस माँ को तुने क्या लौटाया?
कभी सोचा? उस माँ को तुने क्या लौटाया?
~जयंत चौधरी
(जुलाई २००८, माँ के जन्मदिन पर)
(Art: by Joe Szimhart)
Wednesday, March 11, 2009
*** माँ - एक कविता ***
रुखा-सूखा, बासा भोजन करती माँ..
अपने सपनों को, स्वयम जला कर,
बच्चों का जीवन, रोशन करती माँ..
बच्चों को सजा-संवार, बनाकर सुन्दर,
खुद श्रींगार-हीन, रह जाती माँ..
मात्र्व्य पाते ही, एक ही क्षण में,
वो स्वयम, बच्ची से बन जाती माँ..
कठिनाई की धूप में, ख़ुद जल वृक्षों सी,
बच्चों को हर क्षण, छाया देती माँ..
प्रथम और सर्वोपरी शिक्षिका, बन बच्चों की,
'नव'जात को मा'नव', बनाती माँ..
हँसकर बच्चों पर, सर्वस्व समर्पित कर,
'मा'नवता का 'मा', बन जाती माँ ..
~जयंत चौधरी
जुलाई ३०, २००८
अपने सपनों को, स्वयम जला कर,
बच्चों का जीवन, रोशन करती माँ..
बच्चों को सजा-संवार, बनाकर सुन्दर,
खुद श्रींगार-हीन, रह जाती माँ..
मात्र्व्य पाते ही, एक ही क्षण में,
वो स्वयम, बच्ची से बन जाती माँ..
कठिनाई की धूप में, ख़ुद जल वृक्षों सी,
बच्चों को हर क्षण, छाया देती माँ..
प्रथम और सर्वोपरी शिक्षिका, बन बच्चों की,
'नव'जात को मा'नव', बनाती माँ..
हँसकर बच्चों पर, सर्वस्व समर्पित कर,
'मा'नवता का 'मा', बन जाती माँ ..
~जयंत चौधरी
जुलाई ३०, २००८
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