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Monday, April 20, 2009

~ तृप्ति... ~













मेरे
जीवन के
सुनहरे सफर में,
आए थे तुम इन्द्रधनुष बनकर,
 मन मयूर नाच उठा था मेरा, 
तुमको अपने संग संग पाकर,

छलका था प्रेम प्यार तुम्हारा,
अमृत बन सपनों के उपवन पर,
प्रारम्भ हुई सृजन की नव पीढी,
पनपा प्रेम नव विरवा बन कर,

तुमसे ही तो मिला था प्रियतम,
एक नन्हा सुन्दर अनुपम उपहार
हर्ष-आनंद से भर उठता है मन,
चाहे कितना भी लूँ उसे निहार,

हर्ष-उल्लास से जीवन झूम उठा,
मन में समाया, प्रेम का सागर,
मधु-मद-मय आत्मा नाच उठी,
छलक उठी सुख-सपनों की गागर,
झुलसा नही कभी घर आँगन मेरा,
तुम रहे सदैव शीतल छाया बनकर,
पीड़ा का सूखा ना कभी पड़ा,
श्रम बहा तुम्हारा, जल बनकर,
....

पर सम्भव कहाँ, कभी भी रहना,
काल-चक्र की गति से बच कर,
आगम हुआ, एक क्षण में प्रलय का,
और टूटा दुःख, विशाल पर्वत बन कर,

अरमानों की गगरी टूट गयी,
सुख-स्वप्न बिखरे चूर चूर होकर,
पर जीवन को व्यर्थ बहाती नहीं,
मैं कभी, एक पल भी आंखों से रोकर,

क्योंकि दुःख से, गर्व बहुत है ज्यादा,
मुझे तुम्हारी, अद्वितीय वीर-गति पर,
तुम संग जीकर, तुमसे ही सीखा था,
जीवन को सचमुच जीना प्रियवर,

....

मुश्किल कितना भी हो चाहे,
जीना है, अपना सर ऊँचा रखकर,
सीख लिया है मैंने भी अब तो,
जीवन विष को पीना हँस कर,
आंधियां भी ना हिला सकेंगी,
उससे, चलती हूँ मैं जिस पथ पर,
साँसों का स्पंदन कहता मुझसे,
चलते जा, तू अथक संघर्ष कर,


भान मुझे है, यह आज भी,
देखते हो तुम हमें छुपकर,
और दे जाते हो साहस व् शक्ति,
अपने होने का आभास दिला कर,

उलझा जब भी मेरा मन चिंतन,
सुलझाया तुमने चुपके से हर बार,
मंजिल को मैं हासिल कर ही लुंगी,
मुझे राह दिखाता तुम्हारा प्यार,

तुमको अपने संग लेकर चलूंगी,
है जब तक मेरी साँसों का विस्तार,
प्रेरक शक्ति तुम्ही हो प्रियवर,
झुककर कभी ना मानूंगी मैं हार,
.....

प्रेम तुम्हारा गया नहीं हैं,
रहता है, वो मुझमे बस कर,
छोटा सा था, भले साथ हमारा,
लगता सौ जन्मों से भी बढ़कर,

आज भी तुम, संग बने हो,
चाहे चले गए हो उस पार,
प्रेम हमारा अमर है प्रीतम,
पलेगा ये, जब तक है संसार...

....


प्रिय, साधना मेरी सफल ही होगी,
तप कर लूँगी, माँ और पितृ बनकर,
'तृप्ति' मुझे मिल जायगी जब अपना,
प्रेमांकुर निखरेगा सुन्दर वृक्ष बनकर....

.....

कुछ खट्टी मीठी यादों की माला,
धीरे धीरे गूंथते चलता है मेरा सफर...
फिर एक दिन हम साथ में होंगे,
हम करें प्रतीक्षा, तब तक, प्रियवर...


~जयंत चौधरी२-१८ अप्रैल २००९(Originally published 20-April-2009 12:04 PM CST)

(एक अति साहसी मित्र को समर्पित.. अत्यधिक सम्मान के साथ)
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